रविदास की प्रारंभिक शिक्षा :
बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदा नंद के पाठशाला गये जिनको बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा रोका किया गया था वहाँ दाखिला लेने से। हालाँकि पंडित शारदा ने यह महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक न होकर एक ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है अत: पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया और उनकी शिक्षा की शुरुआत हुयी। वो बहुत ही तेज और होनहार थे और अपने गुरु के सिखाने से ज्यादा प्राप्त करते थे। पंडित शारदा नंद उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित रहते थे उनका विचार था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में जाने जायेंगे। पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गये। एक दिन दोनों लोग एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुयी। अगली बार, रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से वो लोग खेल को पूरा नहीं कर सके उसके बाद दोनों ने खेल को अगले दिन सुबह जारी रखने का फैसला किया। अगली सुबह रविदास जी तो आये लेकिन उनके मित्र नहीं आये। वो लंबे समय तक इंतजार करने के बाद अपने उसी मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र के माता-पिता और पड़ोसी रो रहे थे।
स्वभाव :
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
रविदासजी का वैवाहिक जीवन :
भगवान् के प्रति उनका घनिष्ट प्रेम और भक्ति के कारण वो अपने पारिवारिक व्यापार और माता-पिता से दूर हो रहे थे। यह देख कर उनके माता-पिता ने उनका विवाह श्रीमती लोना देवी से करवा दिया और उनसे उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम था विजय दास। विवाह के बाद भी वो अपने परिवार के व्यापार में सही तरीके से ध्यान नहीं लगा पा रहे थे। यह देख कर उनके पिटे ने एक दिन उन्हें घर से निकल दिया यह देखने के लिए की कैसे गुरु रविदास जी अपने परिवार की मदद के अपने सामजिक कार्यों को कर सकते है। इसके बाद वो अपने घर के पीछे रहने लगे और अपने सामजिक कार्यों को करने लगे। बाद में गुरु रविदास जी राम रूप के भक्त बन गए और राम, रघुनाथ, रजा राम चन्द्र, कृष्णा, हरी, गोविन्द के नामों का उच्चारण करके भगवान् के प्रति अपनी भावना व्यक्त करने लगे।
रविदासजी के कुछ सामाजिक मुद्दे :
उन्हें भगवान् ने पृथ्वी पर असली सामाजिक और धार्मिक कार्यों को पूरा करने के लिए भेजा था और मनुष्यों द्वारा बनाये गए सभी भेदभावों को दूर किया जा सके। गुरु रविदास जी को कर्म के प्रति महान कार्यों के लिए जाना जाता है। उनके समय में दलित लोगों को बहुत ही ज्यादा नज़रअंदाज़ किया जाता था और उन्हें समाज में अन्य जाति के लोगों से दूर किया जाता था।उन्हें मंदिरों में पूजा करने के लिए नहीं जाने दिया जाता था और बच्चों को स्कूलों में भी भेद भाव किया जाता था। ऐसे समय में गुरु रविदास जी ने दलित समाज के लोगों को एक नया अध्यात्मिक सन्देश दिया जिससे की वो इस तरीके की मुश्किलों से लड़ सकें।